Atreya


Wednesday, March 28, 2012

संस्कृत बनेगी नासा की भाषा
 
आदर्श नंदन गुप्त, आगरा: देवभाषा संस्कृत की गूंज कुछ साल बाद अंतरिक्ष में सुनाई दे सकती है। इसके वैज्ञानिक पहलू का मुरीद हुआ अमेरिका नासा की भाषा बनाने की कसरत में जुटा है। इस प्रोजेक्ट पर भारतीय संस्कृत विद्वानों के इन्कार के बाद अमेरिका अपनी नई पीढ़ी को इस भाषा में पारंगत करने में जुट गया है। गत दिनों आगरा दौरे पर आए अरविंद फाउंडेशन (इंडियन कल्चर) पांडिचेरी के निदेशक संपदानंद मिश्रा ने जागरण से बातचीत में यह रहस्योद्घाटन किया। उन्होंने बताया कि नासा के वैज्ञानिक रिक ब्रिग्स ने 1985 में भारत से संस्कृत के एक हजार प्रकांड विद्वानों को बुलाया था। उन्हें नासा में नौकरी का प्रस्ताव दिया था। उन्होंने बताया कि संस्कृत ऐसी प्राकृतिक भाषा है, जिसमें सूत्र के रूप में कंप्यूटर के जरिए कोई भी संदेश कम से कम शब्दों में भेजा जा सकता है। विदेशी उपयोग में अपनी भाषा की मदद देने से उन विद्वानों ने इन्कार कर दिया था। इसके बाद कई अन्य वैज्ञानिक पहलू समझते हुए अमेरिका ने वहां नर्सरी क्लास से ही बच्चों को संस्कृत की शिक्षा शुरू कर दी है। नासा के मिशन संस्कृत की पुष्टि उसकी वेबसाइट भी करती है। उसमें स्पष्ट लिखा है कि 20 साल से नासा संस्कृत पर काफी पैसा और मेहनत कर चुकी है। साथ ही इसके कंप्यूटर प्रयोग के लिए सर्वश्रेष्ठ भाषा का भी उल्लेख है। स्पीच थैरेपी भी : वैज्ञानिकों का मानना है कि संस्कृत पढ़ने से गणित और विज्ञान की शिक्षा में आसानी होती है, क्योंकि इसके पढ़ने से मन में एकाग्रता आती है। वर्णमाला भी वैज्ञानिक है। इसके उच्चारण मात्र से ही गले का स्वर स्पष्ट होता है। रचनात्मक और कल्पना शक्ति को बढ़ावा मिलता है। स्मरण शक्ति के लिए भी संस्कृत काफी कारगर है। मिश्रा ने बताया कि कॉल सेंटर में कार्य करने वाले युवक-युवती भी संस्कृत का उच्चारण करके अपनी वाणी को शुद्ध कर रहे हैं। न्यूज रीडर, फिल्म और थिएटर के आर्टिस्ट के लिए यह एक उपचार साबित हो रहा है। अमेरिका में संस्कृत को स्पीच थेरेपी के रूप में स्वीकृति मिल चुकी है।
 
 
 
 
 

मेरा वो गीत अनजानेपनं में लिखा गया

         मगर आत्मा के पास आकर बैठ गया 

                      हाय रोज़ याद आवे स...........


हाय रोज़ याद आवे स बचपन के दिन 
रह-रह के मुहं चिढावे स बचपन के दिन

मेरी एक किलकी  त, घर सिर प उठ ज्यां था
मैं खानी पीणी चीज़ां प, जद ए रूठ ज्यां था
स याद मैन्ने, मेरी थी तोतली जुबान
सुण ले था एक ब जो भी, होवे था हैरान
नाच्या करूं था पैरां में, घुंघरू बांध के
हो कितनी ऊँची चाहे चद ज्यूँ था कांध प
किसने फेर थ्यावे स, बचपन के दिन
हाय रोज़ याद आवे स ..........................

जाते स्कूल में हम, लेके पंजी दस्सी
ठंडा का फंड ना था, पिवा थे रोज़ लस्सी
वो सुलिया डंका और वो छुपम-छुपाई खेलना
माटी का घर बणाके माटी की रोटी बेलना
वो काटके न चप्पल, फेर पहिये बणाने
डंडी के साथ रेहडू, अर टायर चलाणे
आंख्या में आंसू ल्यावे स, बचपन के दिन
हाय रोज़ याद आवे स .......................

वा हरा समन्दर गोपीचन्द्र आळी कविता गाणी
फेर मछली त ए पुछना, बता दे कितना पाणी
वो गुल्ली डंडा अर वो कंच्या आल्ला खेल
वो चोर सिपाई अर वो नकली थाना जेल
वो लूटना पतंग का, अर गाम के उल्हाने
वो शर्त लाके नहरा पे, दिन में कई ब नहाने
उम्र भर रुलावे स बचपन के दिन
हाय रोज़ याद आवे स,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,

ना दुःख कोए ना चिंता, ना फ़िक्र कोए गम
बालकपणे में सचमुच, बादशाह थे हम
इब चुन तेल लकड़ी और फंस रे सां भंवर में
चाल्ला सां रोज़ लेकिन रह रे सां घर की घर में
जीते जी मन की इब,  आरज़ू स याहे
बचपन सी वाहे मस्ती ,जीवन में फेर आये
बेचैन बणा जावे स , बचपन के दिन
हाय रोज़ याद आवे स ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,
रह रह के मुहं चिढावे स ,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,,


                                                  V.M.Bechain