Atreya


Wednesday, September 29, 2010

भारतीयों की थाली को लुभा रहा है आर्गेनिक फूड

नई दिल्ली।

Story Update : Friday, October 08, 2010    12:59 AM














आमतौर पर पश्चिमी देशों के भोजन का हिस्सा माने जानेवाला ‘महंगा’ आर्गेनिक फूड अब ‘सेहतपसंद’ भारतीयों की थाली का भी हिस्सा बनने लगा है। कुछ साल पहले तक देश में जैविक खेती के जरिये तैयार उत्पादों का सिर्फ निर्यात होता था, पर आज इनका एक अच्छा खासा घरेलू बाजार विकसित हो चुका है, जो तेजी से बढ़ रहा है। एक अनुमान के अनुसार वर्ष 2012 तक देश में आर्गेनिक उत्पादों का कुल बाजार बढ़कर 4,000 करोड़ रुपये तक पहुंच जाएगा। इंटरनेशनल कंपिटेंस सेंटर फॉर आर्गेनिक एग्रीकल्चर, (आईसीसीओए) बेंगलूर के कार्यकारी निदेशक मनोज मेनन ने कहा कि आज आर्गेनिक उत्पाद सिर्फ निर्यात तक सीमित नहीं रह गए हैं। इसका घरेलू बाजार भी तेजी से बढ़ रहा है, हालांकि आर्गेनिक उत्पादों के साथ बड़ी दिक्कत इनका कमजोर विपणन नेटवर्क है। सभी दुकानों पर आर्गेनिक उत्पाद नहीं बिकते हैं। देश में फल-सब्जियों से लेकर चावल, गेहूं, चीनी और सभी प्रकार के मसालों सहित 300 से अधिक आर्गेनिक उत्पादों का उत्पादन हो रहा है।

आईसीसीओए तथा कृषि मंत्रालय के तहत आने वाले नेशनल सेंटर फॉर आर्गेनिक फार्मिंग (एनसीओएफ) के अनुमान के अनुसार 2012 तक देश में आर्गेनिक उत्पादों का कुल बाजार कई गुना बढ़कर 4,000 करोड़ रुपये पर पहुंच जाएगा। इसमें से 2,500 करोड़ रुपये का निर्यात और 1,500 करोड़ रुपये का घरेलू बाजार होगा। फिलहाल आर्गेनिक उत्पादों का बाजार 700 से 800 करोड़ रुपये का है। इसमें से 150 से 200 करोड़ रुपये का घरेलू बाजार है। उद्योग विशेषज्ञों के अनुसार आर्गेनिक उत्पाद सामान्य खाद्य पदार्थों से 15 से 20 फीसदी महंगे होते हैं। इसके बावजूद आज इसका बाजार तेजी से बढ़ रहा है, क्योंकि आर्गेनिक होने के साथ-साथ इनमें मिलावट की गुंजाइश भी नहीं होती। कुछ साल पहले लोग सिर्फ बच्चों के लिए ही आर्गेनिक उत्पाद खरीदते थे।

आर्गेनिक खेती खेती की वह प्रणाली है जिसमें कीटनाशक और रासायनिक खाद आदि का इस्तेमाल नहीं होता है। जैविक खेती के तहत कृषि भूमि वर्ष 2012 तक 20 लाख हेक्टेयर पर पहुंच जाने का अनुमान है, जबकि 2008 में इसके तहत मात्र 8.65 लाख हेक्टेयर भूमि ही थी। इस समय जैविक खेती के तहत 12 लाख हेक्टेयर भूमि है। मोररका आर्गेनिक फूड्स के निदेशक मुकेश गुप्ता ने कहा कि यह धारणा सही नहीं है कि आर्गेनिक उत्पाद बहुत ज्यादा महंगे होते हैं। यदि इसके स्वास्थ्य के प्रति फायदे को देखा जाए, तो आपको दाम ज्यादा नहीं लगेगा। यदि किसी परिवार का किचन का बजट मासिक 6,000 रपये है, तो वह इसमें 1,000 से 1,500 रुपये की बढ़ोतरी कर आसानी से आर्गेनिक की ओर शिफ्ट कर सकता है।

आईसीओओए के कार्यकारी निदेशक मेनन ने कहा कि आर्गेनिक उत्पादों के विपणन नेटवर्क को बढ़ाने का लगातार प्रयास किया जा रहा है। स्पेंसर्स, सफल जैसी कुछ रिटेल चेन ने अब अपने शेल्फ पर आर्गेनिक उत्पादों को रखने की पहल की है, पर और ज्यादा रिटेल शृंखलाओं को इसके लिए आगे आना चाहिए। मोररका आर्गेनिक के मुकेश गुप्ता का कहना है कि आज की तारीख में कई फूड कोर्ट और रेस्तराओं ने अपने मेन्यू में आर्गेनिक उत्पादों को स्थान देना शुरू किया है। ( अमर उजाला )

 

 

सुरेखा शर्मा
 

शिक्षक व शिष्य राष्ट्र की रीढ़ कहलाते हैं। वही समाज की पूर्ण दिशा तय करते हैं। ऐसे में जाहिर है इस विशिष्टï वर्ग से देश व समाज को अपेक्षाएं भी होंगी। पर आज फिर हमारे समक्ष एक यक्ष प्रश्न खड़ा है। क्या शिक्षक वर्ग समाज की अपेक्षाओं पर खरा उतर रहा है? क्या वह अपने शिष्यों का सही मार्गदर्शन कर रहा है। जिस पर चलकर वह जीवन की बुलंदियों को छू सके। आज ज्ञान देना ही शिक्षक का एकमात्र कार्य नहीं रहा। आज ज्ञान तो उसे अनेक साधनों से अर्थात्, कंप्यूटर से, इंटरनेट से, गाइडों से न जाने कितने अन्य साधनों से प्राप्त कर लेता है। आवश्यकता है तो उसे चारित्रिक ज्ञान की। जिस नींव पर उसको संपूर्ण जीवन के भवन को खड़ा करना है।

डा. राधाकृष्णन जी ने शिक्षकों के ऊपर देश के भविष्य की जिम्मेदारी सौंपते हुए कहा कि गुरु-शिष्य का संबंध अनंत है जो युगों से चलता आ रहा है तथा चलता रहेगा। गुरु ही उत्तम नागरिक तैयार कर सकता है। लक्ष्य तक पहुंचने में गुरु ही सहायक बनता है। हमारे संत कवियों ने गुरु को ईश्वर से भी बढ़कर माना है। दोनों एक-दूसरे के पूरक हैं। कोई भी सुन्दर भवन स्कूल या पाठशाला नहीं कहला सकता, जब तक उसमें शिक्षक व शिष्य न हो। एक का कार्य है शिक्षा देना व दूसरे का कार्य है शिक्षा लेना अर्थात् शिक्षक व शिक्षार्थी। इसलिए उस महान शिक्षक प्रणेता के प्रति श्रद्धांजलि स्वरूप ही यह दिवस ‘शिक्षक दिवस’ के रूप में मनाने की परंपरा चली हुई है।

आज के  बदलते परिवेश में शिक्षक वर्ग गौण होता जा रहा है। इसके पीछे भी यदि सोचा जाए तो इसका जिम्मेवार भी स्वयं शिक्षक ही है। शिक्षकों के लिए छात्रों की कसौटी पर खरा उतरना तथा अपना चरित्र पारदर्शी रखना अति आवश्यक है। जो कि आज संदिग्धावस्था में है। आज हमें आए दिन समाचार-पत्रों में पढऩे को मिल जाता है कि अमुक शिक्षक ने अपनी छात्रा के साथ अभद्र व्यवहार किया तो संपूर्ण शिक्षक वर्ग का सिर शर्म से झुक जाता है। उत्पीडऩ की शिकार छात्राएं आत्महत्या तक का कदम उठा लेती हैं? स्कूल के गेट पर ताले जड़ दिए जाते  हैं। शिक्षक की शारीरिक प्रताडऩा से कई बच्चे जिंदगी से भी हाथ धो बैठे।

एक ज्वलंत प्रश्न यह भी उठ रहा है कि आज का छात्र वर्ग अनुशासनहीन होता जा रहा है। यह सत्य भी है, पर इसका दायित्व किस पर है? हम प्राय: सारा दोष छात्रवर्ग पर मढ़ देते हैं। व्यक्तिगत रूप से हमारी राय है छात्रवर्ग तो दोषी है ही पर अनुशासनहीनता  की इस व्यापक प्रवृत्ति के पीछे मूल कारण भी कम नहीं है। शिक्षक वर्ग व अभिभावक वर्ग भी कम दोषी नहीं है। एक समय वह भी था कि जब माता-पिता अपने बच्चों को गुरु के हाथ में सौंपकर निश्चिंत हो जाते थे। गुरु ही उन्हें जीवन की राह पर चलना सिखाते थे। यदि प्राचीन भारतीय परंपरानुसार आज के शिक्षक ने लोभ एवं अहंकार के फंदों से बचकर नि:स्वार्थ और लगन से छात्रों  का मार्ग प्रशस्त करने में रत रहता तो आज छात्र उसके इशारों पर नाचता होता। फिर वह कोई भी कारण उसे अपने मार्ग से हटने न देता।

लेकिन हम इतना तो अवश्य ही विश्वास के साथ कह सकते हैं कि भारतीय छात्रों के रक्त में आज भी अपनी सभ्यता व संस्कृति के बीज पूरी तरह नष्टï नहीं हुए हैं। यदि आज भी शिक्षक वर्ग अपना आत्मविश्लेषण करके अपने पुनीत कर्तव्यों के प्रति सच्चाई और ईमानदारी बरतें तो अनुशासनहीनता जैसी समस्या का समाधान सरलता से प्राप्त कर सकते हैं।

यदि हम चाहते हैं कि हमारा देश वास्तविक रूप से उन्नति करे और शक्तिशाली राष्ट्र बने तो हमें भारतीय शिक्षक को उसके स्थान पर प्रतिस्थापित करना होगा। उसके लिए समाज को पुन: गुरु का सम्मान करना होगा। जब अभिभावक वर्ग शिक्षक समाज का सम्मान करेगा तो बच्चे कहां पीछे हटेंगे? बच्चा समाज व घर से ही तो सीखता है। अध्यापक वर्ग चाहता है उसका सम्मान हो तथा पुन: गुरु-शिष्य परंपरा का आदर हो तो उसे भी समझना होगा कि केवल शिक्षा देना व मात्र नौकरी करना ही उसका उद्देश्य नहीं अपितु पूर्ण समर्पण  की भावना लेकर ही विद्यालय में प्रवेश करना होगा। सर्वप्रथम अपने चारित्रिक बल को सुदृढ़ करना होगा अन्यथा वह दिन दूर नहीं जब समाज में शिक्षक का सम्मान तो दूर उनसे शिक्षा ग्रहण करना भी अपनी हीनता समझा जाएगा। इसके लिए आवश्यक है ‘समर्पण’। उसे अपने शिष्य में सादगी, ईमानदारी, अनुशासन व आत्मविश्वास जैसे गुणों को विकसित करना होगा। जिससे समाज व राष्ट्र की उस पर श्रद्धा व विश्वास बढ़ेगा। साथ ही हमें यह संकल्प भी लेना होगा कि आज जितनी अवमानना शिक्षक वर्ग की हो रही है तथा जितना खिलवाड़ व परिवर्तन शिक्षा क्षेत्र में हो रहा  है उसे समाप्त करना होगा तभी राष्ट्र वास्तव में प्रगति की राह पर अग्रसर होगा और कबीर जी का दोहा सार्थक होगा-   
‘गुरु गोविंद दोऊ खड़े, काके लागूं पाय,
बलिहारी गुरु आपने जिन गोविंद दियो मिलाए।’  

 

 

 

पहली से आठवीं तक मुफ्त पढ़ाई

Posted On September - 29 - 2010

ट्यूशन फीस के बाद अब हरियाणा के सरकारी स्कूलों में फंड भी किये माफ

22 लाख से अधिक बच्चों को होगा योजना से लाभ

दिनेश भारद्वाज/ प्रतिनिधि
 
चंडीगढ़, 28 सितम्बर। हरियाणा के बच्चे-बच्चे को शिक्षित करने की योजना के दृष्टिगत प्रदेश सरकार ने एक अहम फैसला लिया है। हरियाणा के सरकारी स्कूलों में पहली कक्षा से आठवीं कक्षा तक के विद्यार्थियों की ट्यूशन फीस माफी के बाद अब राज्य सरकार ने इनसे लिये जाने वाले आधा दर्जन से अधिक फंडों को भी माफ कर दिया है। सरकार के इस फैसले के बाद विद्यार्थियों को आठवीं कक्षा तक की पढ़ाई बिल्कुल मुफ्त कराई जायेगी। यहां बता दें कि इससे पूर्व सरकार की ओर से इन स्कूलों के विद्यार्थियों को किताबें व वर्दी आदि भी मुफ्त ही मुहैया कराई जा रही है।

शिक्षा विभाग के सूत्रों से मिली जानकारी के मुताबिक विभाग के इस प्रस्ताव को शिक्षा मंत्री की मंजूरी के बाद मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा की ओर से भी हरी झंडी दे दी गई है। यहां बता दें कि गत वर्ष हरियाणा में पहली से आठवीं कक्षा तक के गरीब विद्यार्थियों, अनुसूचित जाति के बच्चों एवं लड़कियों को मुफ्त किताबें-कापियां एवं वर्दी देने का फैसला लिया गया था। इसी दौरान सरकार ने सरकारी स्कूलों में आठवीं कक्षा तक ली जाने वाली ट्यूशन फीस को भी माफ कर दिया था।

अब सरकार ने फैसला किया है कि प्रदेश के हर बच्चे को शिक्षित बनाने के लिए उनसे लिये जाने वाले फंड भी नहीं लिये जाएंगे। इन फंडों में मुख्यत:, चाइल्ड वेलफेयर फंड, हेल्थ फंड, साइंस फंड, बिल्डिंग फंड, एक्जॉम फंड, एजीएफ तथा रेडक्रास फंड आदि शामिल हैं। सरकार के इस फैसले से हरियाणा के लगभग 22 लाख विद्यार्थियों को फायदा होगा। प्रदेश में 9371 प्राइमरी तथा करीब 2300 माध्यमिक स्कूल चल रहे हैं।

सूत्रों का कहना है कि स्कूलों से बच्चों के ड्रॉप आउट की बढ़ती संख्या को रोकने के मद्देनज़र यह फैसला लिया गया है। आमतौर पर गांवों एवं शहरों में रहने वाले गरीब लोग अपने बच्चों को पढ़ा नहीं पाते। केंद्रीय मानव संसाधन मंत्रालय द्वारा सभी को शिक्षा का अधिकार अधिनियम के बाद सरकार ने अपनी नीतियों में और भी बदलाव किया है। माना जा रहा है कि आठवीं कक्षा तक पूरी तरह से मुफ्त शिक्षा का फैसला जहां सरकारी स्कूलों में विद्यार्थियों की संख्या में इजाफा करेगा, वहीं ड्रॉप आउट का आंकड़ा भी कम होगा।

हरियाणा सरकार सभी बच्चों को शिक्षित करने के प्रति वचनबद्ध है। पहली से आठवीं तक मुफ्त शिक्षा और किताबें-कापियां तथा वर्दी देने के अलावा इससे आगे की पढ़ाई के लिए भी सरकार द्वारा व्यवस्था की गई है। अनुसूचित जाति के विद्यार्थियों को जहां छात्रवृत्तियां दी जा रही हैं, वहीं गरीब एवं पिछड़े वर्ग के विद्यार्थियों के लिए भी सरकार द्वारा योजनाएं चलाई गई हैं। हमारी कोशिश है कि प्रदेश का बच्चा-बच्चा पढ़ा-लिखा हो।  कम से कम पैसे के अभाव में कोई बच्चा शिक्षा से वंचित न रहे। मुख्यमंत्री भूपेंद्र सिंह हुड्डा के निर्देशों के बाद ही विभाग ने यह फैसला लिया है। मुख्यमंत्री जी का मानना है कि वही प्रदेश और देश तरक्की करेगा, जो शिक्षा के क्षेत्र में उन्नति करेगा।
-गीता भुक्कल, शिक्षा मंत्री, हरियाणा।  ( दैनिक ट्रिब्यून )

Saturday, September 11, 2010

जानिए क्या होता है मेगापिक्सल








जब कभी आप कैमरा या मोबाइल खरीदने जाते हैं तो मेगापिक्सल शब्द जरुर सुनते होंगे। दरअसल मेगापिक्सल कैमरे की क्वालिटी को नापने का एक पैमाना है जिसक कैमरे में जितने ज्यादा मेगापिक्स होंगे उसकी पिक्चर क्वालिटी उतनी ही बेहतर होगी। एक मेगापिक्सल में 10 लाख पिक्सल्स होते हैं और इन्हे डिजिटल इमेजिंग की रिजल्यूशन कैपेबिलिटी में इस्तेमाल किया जाता है। आम भाषा में कहें तो फोटो कितनी बड़ी होगी यह पिक्सल पर निर्भर करता है।


जितने ज्यादा मेगापिक्सल का कैमरा होगा वह फोटो में ऑब्जेक्ट की डिटेल उतनी ही ज्यादा पकड़ेगा और जितनी ज्यादा डिटेल होगी पिक्चर उतनी ही ज्यादा क्लियर और बड़ी हो सकती है। 8 मेगापिक्सल के कैमरे से खींची गई फोटो का एक बड़ा पोस्टर साइज प्रिंटआउट निकाला जा सकता है। 2 या 3 मेगापिक्सल के कैमरे से ए4 या ए3 साइज का प्रिंट लिया जा सकता है। अगर आपको पोस्टर साइज इमेज चाहिए तो ज्यादा मेगापिक्सल वाला कैमरा आपकी पॉकेट के लिए सही रहेगा। वही एल्बन साइज फोटो प्रिंट्स के लिए 4-5 मेगापिक्सल वाला कैमरा बेहतर रहता है।   ( दैनिक भास्कर ) 







 
पिंकी
 
सन् 2007 में जब एक एजेंसी ने भविष्यवाणी की कि 2010 तक भारत में 50 करोड़ मोबाइल होंगे तो कई लोगों ने उस एजेंसी का खूब मजाक उड़ाया। मगर 2010 की पहली तिमाही के बाद जो आंकड़े जारी हुए हैं, उनके मुताबिक देश में इस समय 67 करोड़ 76 लाख फोन है जिसमें 61 करोड़ से ज्यादा मोबाइल फोन है। इससे अंदाजा लगाया जा सकता है कि भारत में हाल के सालों में मोबाइल फोन में किस कदर वृद्धि हुई है। आज हर कामकाजी व्यक्ति चाहे वह स्त्री हो या पुरुष 10 में से ऐसे 7 लोगों के पास मोबाइल फोन है। मजे की बात यह है कि कामकाजी पुरुषों के मुकाबले कामकाजी महिलाओं के पास मोबाइल फोन ज्यादा है। आखिर क्यों? क्या यह उनकी जरूरत को दर्शाता है या उनके मोबाइल मेनिया के शिकार होने की कहानी बताता है? इस सवाल का जवाब कुछ भी हो सकता है; लेकिन आप मोबाइल मेनिया का शिकार हैं या नहीं अगर आपको यह पता करना हो तो आप इस क्विज में हिस्सा लें और खुद ही परख लें।

1. आपका मोबाइल ऑन रहता है—
क. 24 घंटे
ख. सुबह 8 बजे से रात्रि 10 बजे तक
ग. सिर्फ वर्किंग आवर में

2. आप अपनी अंतरंग सहेलियों को उनके जन्मदिन, शादी की साल ï-गिरह, न्यू ईयर तथा त्योहारों आदि में
क. शुभकामना देने के लिए उनके घर जाती हैं
ख. उन्हें ग्रीटिंग कार्ड और हाथ से लिखा खत भेजती हैं
ग. एसएमएस के जरिये शुभकामनाएं देती हैं

3. आप रोज के समाचारों को जानने के लिए—
क. अखबार पढ़ती हैं
ख. टीवी में समाचार देखती हैं
ग. जब मन हुआ मोबाइल में हेडलाइंस देख लेती हैं

4. छोटे-मोटे हिसाब—
क. रफ कागज में करती हैं
ख. मुंहजुबानी कर लेती हैं
ग. मोबाइल कैलकुलेटर का उपयोग करती हैं

5. समय जानने के लिए आप—
क. कलाई घड़ी पहनती हैं
ख. दीवार घड़ी देखती हैं
ग. जब जरूरत हुई मोबाइल स्क्रीन देख लेती हैं

6. दफ्तर का सफर—
क. मनपसंदीदा पत्रिका पढ़ते हुए पूरा करती हैं
ख. ईयरफोन लगाकर मोबाइल से गाने सुनती हैं
ग. सहयात्रियों से गपशप करती हैं

7. बस से उतरते समय, सड़क पार करते समय भी—
क. मोबाइल बज उठे तो तुरंत रिसीव करती हैं
ख. पहले सड़क पार कर लेती हैं फिर सुनती हैं
ग. रास्ते में मोबाइल ऑफ रखती हैं

स्कोर बोर्ड
क्रम     क    ख    ग
1.        0    3    2
2.        5    3    0
3.        5    3    0
4.         5    2    0
5.         5    3    0
6.         2    0    5
7.         0    3    5

निष्कर्ष : प्रत्येक सवाल के लिए दिये गए जवाब के तीन विकल्पों में से आपने यदि ईमानदारी से अपने पर लागू होने वाले विकल्पों पर टिक किया है तो फिर ये निष्कर्ष आप पर लागू होते हैं—

30-35 : अगर आप पर लागू होने वाले विकल्पों के अंकों का जोड़ 30 से 35 के बीच कहीं टिकता है तो आप में मोबाइल मेनिया का दूर-दूर तक कोई लक्षण नहीं है। नि:संदेह आप मोबाइल के इस्तेमाल के मामले में स्मार्ट हैं।

14-21 : अगर आप पर लागू होने वाले विकल्पों का जोड़ 14 से 21 अंकों के बीच कहीं है तो आपके लिए समझिए यह पीली बत्ती है। सावधान हो जाइये क्योंकि आप धीरे-धीरे जिस दिशा में बढ़ रही हैं वह मोबाइल मेनिया की तरफ जाती है।

0-10 : सावधान! अगर आप पर लागू होने वाले विकल्पों का अंकीय योग यह है तो बिना किसी शक के यह समझ लीजिए कि आप मोबाइल मेनिया की गिरफ्त में आ चुकी हैं। अत: जितना जल्दी हो सके इसकी गिरफ्त में बाहर आइये वरना आप मोबाइल सिंड्रोम का शिकार हो सकती हैं।  ( दैनिक ट्रिब्यून )

Saturday, September 4, 2010

फ्रेंड+फिलॉसफर+मेंटर=टीचर शिक्षक दिवस (5 सितंबर) पर विशेष..
टीचर, गुरु, शिक्षक.. संबोधन कोई भी हो, सच यह है किजिंदगी को मुकम्मल बनाने में इनका बडा योगदान है। समय के साथ बहुत सी चीजें बदलती हैं, आदर-सम्मान के ढंग बदल जाते हैं, लेकिन सच्चे गुरु की जरूरत और अहमियत जीवन के हर मोड पर होती है। आइए, इन जाने-पहचाने चंद नामों के साथ शिक्षक दिवस पर हम भी याद करें अपने उन शिक्षकों को, जिन्होंने किताबी सतरों के इतर भी चंद दुनियावी सबक हमें दिए, ताकि हम जिम्मेदार नागरिक बन सकें, अपना वजूद बना सकें और अपनी जिंदगी को एक सही दिशा दे सकें।
दुनिया की हर समझ शिक्षक से ही मिली
सईं-शक्ति देवधर (टीवी एक्ट्रेस)
मेरी स्कूली शिक्षा मुंबई के सबसे बडे स्कूल पार्ले टिलक स्कूल में हुई। सभी टीचर्स अच्छे थे, लेकिन प्रभु मैम से मेरा खास लगाव था। मैं आठवीं में थी। वह इतने हलके-फुलके और रोचक ढंग से पढातीं कि सब मंत्रमुग्ध से उनकी बातें सुनते रहते। उनकी क्लास में समय का पता नहीं चलता, न पढाई बोरिंग लगती। तब हम जनरल नॉलेज की चीजें नहींपढते थे, लेकिन मैम ने हमारी जी.के. भी ठीक कर दी। विषय के अलावा देश-दुनिया की जानकारी भी वह खूब रखती थीं। उनके कारण ही पढाई व अन्य गतिविधियों में मेरी रुचि बढी।
मुझ जैसी शर्मीली लडकी को उन्होंने बोलना सिखा दिया। पिछले कुछ वर्षों से वह अपनी बेटी के पास ऑस्ट्रेलिया में हैं। मुझे सिर्फ यही दुख है कि उनसे संपर्क करने का कोई जरिया मेरे पास नहींहै। इस कॉलम के जरिये मैं उनसे कहना चाहती हूं कि मैं सचमुच उन्हें बहुत मिस करती हूं।
कार्ड देकर कहूंगी हैप्पी टीचर्स डे!
अविका राजगोर (धारावाहिक बालिका वधू की आनंदी)
हर वह व्यक्ति मेरे लिए गुरु है, जिनसे मैं कुछ सीखती हूं। प्रिंसिपल मैम, क्लास टीचर, पापा-मम्मी सभी ने मुझे सिखाया है। क्लास टीचर मेहनत करने और अनुशासित जीवन जीने को प्रेरित करती हैं, तो मम्मी प्रैक्टिकल लाइफ एंजॉय करना सिखाती हैं। पापा मुझे डायलॉग रटाते हैं। सेट पर चाय-पानी पिलाने वाले ब्वॉय से मैं सेवाभाव सीखती हूं।
मैं टीचर्स डे पर अपने सभी टीचर्स से कहना चाहती हूं कि मैं उन सभी से बहुत प्यार करती हूं और अगर मुझसे कभी कोई गलती हुई हो तो प्लीज मुझे माफ कर दें। मैंने टीचर्स के लिए ग्रीटिंग का‌र्ड्स तैयार किए हैं, जिन्हें फ्लॉवर्स के साथ उन्हें देकर हैप्पी टीचर्स डे कहूंगी। पिछले साल मैं शैरोन इंग्लिश हाई स्कूल में थी। वहां टीचर्स डे पर फेवरिट टीचर के लिए फूड बनाने का कंपिटीशन हुआ था। मैंने उसमें सेकंड प्राइज जीता था।
बालिका वधू के दौरान सभी शिक्षकों ने मुझे सहयोग दिया। कभी यह नहीं जताया कि इससे मेरी पढाई का नुकसान हो सकता है। हालांकि मैंने भी यह ध्यान रखा कि स्कूल कभी स्किप न करूं।
मेरी हर समस्या का हल है टीचर के पास
अविनाश मुखर्जी (धारावाहिक बालिका वधू के जगदीश)
मैं मुंबई के रेयान इंटरनेशनल स्कूल में पढता हूं। वहां की प्रिंसिपल अंजनि बोवेन मेरी आदर्श टीचर हैं। मैं उन्हें अंजनि मिस कहकर बुलाता हूं। वह बहुत स्वीट हैं। देखने में सख्त-मिजाज, लेकिन अंदर से नरम। मेरा पढने में मन नहीं लगता, लेकिन जब वे कोई स्पेशल क्लास लेती हैं तो मैं मिस नहीं करता।
उन्होंने मुझे क्लास का डिसिप्लिन इंचार्ज बनाया है। मैं जब सीरियल में काम नहीं करता था, तब भी वे मुझे प्यार करती थीं। मैं जब किसी समस्या में फंसता हूं तो उन्हीं के पास जाता हूं। वह मुझे प्यार से अपने पास बैठाती हैं और एक पल में मेरी समस्या का अंत कर देती हैं। अंजनि मिस को मैं अपनी सेकंड मॉम मानता हूं। मैं उनका बहुत आदर करता हूं। आज भले ही मैं पॉपुलर हो गया हूं, लेकिन वह मुझे अन्य बच्चों की ही तरह मानती हैं। गलती करने पर मुझे डांट भी पडती है। एक दिन वह क्लास में आई और मेरी ओर इशारा करके कहने लगीं, मैं जानती हूं कि तुम आजकल क्या कर रहे हो? मैं बहुत डर गया कि पता नहीं मैम को क्या पता चला है। बाद में उन्होंने बताया कि वह मेरे शो की बात कर रही थीं। उस वक्त बालिका वधू में मेरा किरदार जगदीश सिगरेट पीना सीख रहा था। अंजनि मिस सभी बच्चों की फ्रेंड हैं। कभी-कभी वह हमारे साथ गेम में हिस्सा लेती हैं और हमारा उत्साह बढाती हैं। मैं जब कभी न्यूज पढता-सुनता हूं कि फलां टीचर ने अपने स्टूडेंट की जमकर पिटाई की तो मुझे दुख होता है। हमारी टीचर्स तो कभी ऐसा नहीं करतीं। मैंने दोस्तों के साथ योजना बनाई है कि टीचर्स डे पर स्कूल की सभी टीचर्स को विश करेंगे और उन्हें ग्रीटिंग कार्ड देंगे। अपनी फेवरिट मिस के लिए तो मैं कोई खास तोहफा ले जाऊंगा।
मेरी जिंदगी ही बदल दी टीचर ने
आरजू गोवित्रीकर (मॉडल-अभिनेत्री)
मां के बाद मेरे आध्यात्मिक गुरु श्री मुंगले महाराज जी, दीदी डॉ.अदिति गोवित्रीकर और मिस आशा सादरानी का मुझ पर गहरा प्रभाव है। पनवेल के प्रसिद्ध स्कूल दाव में मैंने पढाई की। घर में सबसे छोटी थी। शरारतों में तेज, लेकिन पढाई में कमजोर। कई बार मेरे पेरेंट्स को मेरी हरकतों के कारण स्कूल में बुलाया गया। यह सब पहले स्टैंडर्ड से तीसरी क्लास तक चला। डैड को उनके एक सहकर्मी ने अपनी पत्‍‌नी के बारे में बताया, जो टीचर थीं और कई बच्चों को सुधार चुकी थीं। इस तरह मेरी जिंदगी में आशा मिस आईं, जिन्होंने मुझे दसवीं तक पढाया। सच कहूं तो जिंदगी की दिशा ही बदल दी उन्होंने। मैं पढाई में रुचि लेने लगी, साथ ही निजी जीवन में भी गंभीर हो गई। दुर्भाग्य से अब उनसे मेरा कोई संपर्क नहीं है। लेकिन अपनी जिंदगी को सही दिशा देने के लिए मैं हमेशा उनकी आभारी रहूंगी। टीचर्स से अब भी मिलता हूं
आमिर खान (अभिनेता)
अम्मी बताती हैं कि छोटा था तो स्कूल जाते वक्त बहुत रोता था। सब परेशान रहते कि कब रोने-धोने का नाटक बंद करके खुशी से स्कूल जाऊंगा। लेकिन धीरे-धीरे मैं टीचर्स के करीब आता गया।
सेंट ऐन्स स्कूल में के.जी. से सातवीं कक्षा तक पढने के बाद बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल में मेरा एडमिशन हुआ। मुझे आज का आमिर खान बनाने में इन दोनों स्कूलों का बहुत योगदान है। लेकिन ठहरिए, स्कूल से भी पहले हैं मेरे माता-पिता। अम्मी मेरी पहली गुरु हैं। मैंने बचपन से ही बतौर चाइल्ड एक्टर काम शुरू कर दिया था। फिल्मों में काम करने के कारण स्कूल में काफी लोकप्रिय था, लेकिन मैंने पढाई को कभी दोयम दर्जे पर नहीं रखा। कोशिश की कि अभिनय के कारण पढाई को पीछे न करूं। लिहाजा टीचर्स मुझे प्यार करते थे। आगे चलकर फुटबॉल खेलने लगा तो पी.टी. सर का भी लाडला हो गया। लैंग्वेज की पढाई कुछ मुश्किल जरूर लगती थी मुझे। आज भी कुछ शिक्षकों से मिलता हूं। स्कूल के सालगिरह पर मुझे आमंत्रित किया गया तो मैं बहुत खुश हुआ। मराठी सीखने के लिए मैंने अपने टीचर सुहास लिमये से संपर्क किया, जिन्होंने मुझे फिर से पढाया। आज मैं ठीक-ठाक मराठी बोलता हूं। मैं सभी शिक्षकों का आभारी हूं। जब भी उनके मार्गदर्शन की जरूरत होती है, बेहिचक उनके पास जाता हूं। टीचर्स डे पर यही कहूंगा कि इस रिश्ते की पवित्रता को बनाए रखें।
इंटरव्यू: मुंबई से पूजा सामंत, रघुवेंद्र सिंह
सखी प्रतिनिधि
( दैनिक जागरण )
उन यादों को तू भूल जा.. यादों की दुनिया कभी तो सपनीली होती है लेकिन कई बार यादों के शूल मन में इस कदर चुभ जाते हैं कि जिंदगी खत्म सी लगने लगती है। समय थम जाता है और आगे बढने के रास्ते नजर आने बंद हो जाते हैं। किसी के साथ कोई खास घटना घट जाती है, जिसकी यादों में जिंदगी फंस कर रह जाती है तो कुछ लोग आदतन यादों के भंवर में उलझे रह जाते हैं। मनोवैज्ञानिकों से बातचीत के आधार पर कहें तो लगभग 80 फीसदी लोगों की पर्सनैलिटी पर अतीत की छाप दिखती है। पर यह स्थिति किसी भी सूरत में इंसान के लिए अच्छी नहीं है।
हरिवंश राय बच्चन ने अपनी पहली पत्नी की मृत्यु के बाद जो बीत गई सो बात गई नामक रचना लिखी। शायद यह उनकी ओर से अतीत से निकलने का एक प्रयास था। अतीत से निकलना भले ही कितना मुश्किल क्यों न लगता हो लेकिन हर नजरिये से यही उचित माना जाता है। व्यावहारिकता की दृष्टि से देखें तो समय किसी के लिए नहीं रुकता, भले ही आप अतीत की यादों में कितने ही क्यों न जकडे हों। इसके नुकसान भी आपको झेलने पड सकते हैं। पहला नुकसान तो यह है कि जब तक आप पिछला छोड नहीं देते, आगे बढना और भी मुश्किल हो जाता है। दूसरा यह कि आप अतीत के साथ रहकर खुद को और पिछडा बना लेते हैं।
नई दिल्ली स्थित मूलचंद एंड मेडिसिटी हॉस्पिटल की क्लिनिकल साइकोलॉजिस्ट डॉ. गगनदीप कौर कहती हैं, साइकोलॉजी के अनुसार अकसर वे लोग बीते समय की घटनाओं को नहीं भुला पाते जिनका ईगो सिस्टम कमजोर होता है। देखा जाता है कि ऐसे लोग अपने बारे में और अपने बैकग्राउंड के बारे में हीन भावना से ग्रस्त होते हैं। उनमें वास्तविकता को कु बूल करने की हिम्मत नहीं होती। अतीत को भुला न पाना दरअसल दूसरे शब्दों में वास्तविकता से दूर भागने जैसा ही है। डॉ. गगनदीप कहती हैं, यादों को भुलाने में इंसान के कोपिंग मकैनिज्म का अहम रोल होता है। कोपिंग मकैनिज्म में दुख सहने की शक्ति के साथ उससे उबरने के तरीके, सभी कुछ शामिल हैं। कोपिंग मकैनिज्म एक लंबे समय में विकसित की जाने वाली भावना है। डॉ. गगनदीप के अनुसार अकसर वे लोग यादों के दुष्प्रभावों का शिकार होते हैं जिन्हें बचपन से ओवरप्रोटेक्शन मिलती है। वह कहती हैं, बच्चे की परवरिश के दौरान माता-पिता कई बार इतने प्रोटेक्टिव हो जाते हैं कि उन्हें जिंदगी की असलियतों से दूर करने की कोशिश करते रहते हैं। एक उम्र तक तो अभिभावक बच्चों को बचा सकते हैं, लेकिन उसके बाद उनका सुरक्षा कवच हटते ही जब बच्चे को दुनिया के थपेडे पडते हैं तो वह संभल नहीं पाता। भले ही तब तक वह बडा ही क्यों न हो चुका हो। गौरतलब है कि कुछ स्पेशल केसेज में ये कॉन्सेप्ट लागू नहीं होता। किसी के साथ कोई बडी अनहोनी हो जाए तो जाहिर है कि उसका उस घटना से उबरना मुश्किल ही होगा। डॉ. गगनदीप कहती हैं, मान लीजिए, किसी की अकेली संतान की मृत्यु उसकी शादी के दिन हो जाए तो ये एक अपवादस्वरूप बात हो गई। ऐसे केस में यादों से निकलना बेहद मुश्किल हो जाता है और इंसान को बहुत समय भी लग जाता है।
अतीत भुलाने का मतलब
1. अतीत भुलाने का मतलब है उन स्थितियों को कुबूल कर लेना जिन्होंने आपको आहत किया हो। यह मान लेना कि आपने उन स्थितियों में वह किया जो आप कर सकते थे और कुबूल कर लेना कि अब उसमें कोई सुधार नहीं किया जा सकता।
2. अतीत को भुलाने का मतलब खुद को बीते वक्त में की हुई गलतियों के लिए माफ कर देना है। उस उधेडबुन से बाहर निकलना कि आप क्या कर सकते थे या क्या नहीं करना चाहिए था। अगर आप अपनी गलतियों से डील कर रहे हैं या कोई हताशा का दौर देख रहे हैं तो आगे बढने के लिए खुद को माफ करना जरूरी हो जाता है।
2. अतीत को भूलने का मतलब यह भी है कि आपका अपनी भावनाओं पर नियंत्रण है और आप खुद को बीते हुए दुखद समय से बाहर निकालने के लिए वर्तमान पर ध्यान केंद्रित करना चाहते हैं। किसी दुखद रिश्ते या घटना के गम से बाहर निकलकर जीवन को आगे बढाना चाहते हैं।
4. अतीत भुलाने का मतलब है कि आप समय के चक्के की रफ्तार को कुबूल करते हैं।
5. अतीत भुलाने का मतलब है कि आप नए कनेक्शंस बना रहे हैं। हालांकि इसके लिए जरूरी नहीं कि आप नए लोगों से संपर्क में आएं बल्कि जरूरी यह है कि आप नए ढंग से रिश्तों को डील करें। अपने दोस्तों के साथ आउटिंग पर जाना शुरू करें या अपने पडोसियों के साथ सोशलाइज करें।
6.अतीत भूलने का मतलब है कि आप दुनिया को नए नजरिये से देखने को तैयार हैं।
निकलें अतीत के शिकंजे से
1. जीवन के नए लक्ष्य तलाशें- जीवन में नए फोकल पॉइंट्स ढूंढें, तभी आप अतीत के चक्रव्यूह से निकल कर नई दिशा में अपनी सोच को केंद्रित कर सकते हैं। मनोवैज्ञानिक समीर पारेख कहते हैं, फर्ज कीजिए किसी स्त्री ने अपने बच्चे को खो दिया हो और उस ट्रॉमा से निकलने के लिए वह कोई क्रेश या बच्चों से संबंधित एनजीओ खोल ले। इस तरह से वह स्त्री खुद को व्यस्त रखते हुए अपने जीवन में नए रास्ते तलाश सकती है।
2. कुबूल करना सीखें- आमतौर पर हम अतीत से इसलिए चिपके रह जाते हैं क्योंकि हम उसे कुबूल नहीं कर पाते। यदि आपके मन पर कोई बात लग गई हो तो उसके बारे में गहराई से सोचें और कुबूल करें कि वाक्या गुजर चुका है। अब आप कुछ नहीं कर सकते और आगे बढ जाएं।
3. जूझना छोड दें- कोई बुरी घटना होने के साथ ही मन में उधेडबुन सी शुरू हो जाती है। अतीत से निकलना है तो उस उधेडबुन को छोड दें।
4. हादसों से सीखें- मानना सीखें कि जीवन की सभी घटनाएं शिक्षाप्रद होती हैं और उनसे शिक्षा लेना सीखें।
कहावत है, बीती ताहि बिसार दे, आगे की सुधि ले। यानी अतीत भुला कर भविष्य की ओर ध्यान केंद्रित करें। जिंदगी का बहाव किसी के लिए नहीं रुकता। इसमें बहना ही प्रकृति है। जितनी जल्दी यह मान लिया जाए, उतना ही खुद के लिए, अपने आसपास वालों के लिए और अपने माहौल के लिए अच्छा है।
..तो जीवन के भंवर में फंसा रहता: इमरान खान
मैं शुक्रगुजार हूं उस इंसान का जिसने मुझे जीवन में आगे बढना सिखाया। अगर मुझे अतीत भुलाना न आता होता तो मैं जिंदगी के भंवर में ही फंस कर रह गया होता। जीवन में इतना कुछ हुआ है कि भुला कर आगे बढने के अलावा मेरे पास कोई और विकल्प ही नहीं बचा। मेरा जन्म अमेरिका में हुआ। पिता अनिल पॉल और मां नुजहत खान का तलाक तब हुआ जब मेरे तसव्वुर में उनकी यादें बस भी नहीं पाई थीं। उस पल का तो मुझे कुछ भी याद नहीं, लेकिन उसके बाद की घटनाएं जिंदगी और मेरे दिल पर ट्रॉमेटिक असर छोड गई। अपने माता-पिता के बीच के अलगाव को समझने लायक मेरी उम्र नहीं थी, लेकिन उसके बाद की घटनाओं को मैं समझता था। उनके अलगाव के बाद हम इंडिया आए और हम दादा-दादी के साथ रहने लगे। जैसे-जैसे बडा होता गया, छोटी-बडी घटनाओं के साथ यह अहसास होता गया कि दूसरे बच्चों की तरह मेरे अब्बाजान नहीं हैं। वक्त तो हर जख्म को भर ही देता है, लेकिन एक बच्चे के लिए उसके पिता का साथ न होना बडा दुखद होता है। मेरी मां, मेरे मामू (अभिनेता आमिर खान) और मेरे परिवार ने बडे प्यार-दुलार से मेरी परवरिश की। मुझे किसी कमी का अहसास नहीं होने दिया, इसलिए मेरे जीवन और करियर पर मेरे मामू का बेहद प्रभाव रहा है। अमेरिका से लौटने के कुछ वर्षो बाद मुझे मुंबई के बॉम्बे स्कॉटिश स्कूल में दाखिल करवाया गया, मैं उस स्कूल में अच्छी तरह रम गया। मेरे कई दोस्त बन गए। टीचर्स से गहरा लगाव हो गया, लेकिन मुझे इंडिपेंडेंट और डिसिप्लिंड लाइफ की आदत हो, इसलिए मेरे परिवार वालों ने मुझे ऊटी के बोर्डिग स्कूल में दाखिला दिला दिया। स्कूल के खुलने तक मुझे इस बारे में जानकारी नहीं थी। मैं तब चौथी से पांचवीं कक्षा में जाने वाला था। मुझे जब पता चला कि मुझे ऊटी जैसी अंजान जगह में अकेले रहना है, उस वक्त मैंने बहुत कोशिश की कि मैं ऊटी न जाऊं। लेकिन मुझे जाना ही पडा। मैं वहां बीमार पडा, होमसिक फील करता रहा। वह अनुभव मेरे लिए बेहद डरावना था। लेकिन वक्त के साथ कौन नहीं उबर जाता! मेरी जिंदगी की गाडी भी चलती ही रही। एक वाक्या अभी पिछले दिनों का ही है। मैं अपनी फिल्म के प्रमोशन ट्रिप पर था। मुंबई एयरपोर्ट पर जा रहा था। मेरी कार के पीछे वाली कार में एक परिवार ने मुझे देख लिया। वे मुझे देखकर बहुत खुश हो गए और मेरी तस्वीरें लेनी शुरू कर दीं। हम लोग उस वक्त हाइवे पर थे। वहां स्टियरिंग व्हील से छेडछाड करना बेहद खतरनाक हो सकता था, लेकिन शायद उनका ड्राइवर इस बात को भूल गया। वह भी अपने मोबाइल से मेरी तस्वीरें लेने लगा। वही हुआ जिसका मुझे डर था। उनकी गाडी दूसरी गाडी से टकरा गई और भयंकर एक्सीडेंट हुआ। उस हादसे का सदमा मेरे दिलो-दिमाग से उतरता ही नहीं। मुझे आज भी लगता है कि मेरे कारण वह हादसा हुआ, लेकिन मैं कुछ नहीं कर सकता। जीवन चलता रहता है, चाहे आप पास्ट भूलें या उसी में जीते रहें।
यादों से लडना सीखा है मैंने: मंदिरा बेदी
सेलब्रिटी होने के फायदे हैं तो नुकसान भी कम नहीं हैं। एक आम इंसान जितनी इज्जत या जलालत की उम्मीद भी नहीं कर सकता, सेलब्रिटी को आसानी से मिल जाती है। सन 2007 में एक्स्ट्रा इनिंग्स होस्ट करने का मौका मिला था। क्रिकेट फैन होने के नाते यह मेरे लिए एक बडी बात थी और इसके लिए मैंने खास तैयारियां भी की थीं। लेकिन लोगों को शायद मेरी ये तैयारियां पसंद नहीं आई। हर तरफ मेरी साडियों और ब्लाउजेज के चर्चे थे। किसी शख्स ने यहां तक लिखा मंदिरा बेदी शोइंग बूब्स इन एक्स्ट्रा इनिंग्स। मेरे लिए यह बहुत बडी बात थी। मेरी तिरंगे वाली साडी को लेकर तो देश में बवाल ही मच गया। लोगों ने शो में मेरी मौजूदगी को बडे ही नकारात्मक तरीकेसे लिया। शायद आलोचकों के लिए एक लडकी का क्रिकेट पर बातचीत करना हजम नहीं हुआ। लेकिन मुझे पता है कि मैं वहां सिर्फ और सिर्फ अपने क्रिकेट प्रेम के कारण थी। दरअसल आलोचना मुझे बुरी नहीं लगी, लोगों खासकर मीडिया का आलोचना करने का अंदाज मुझे पसंद नहीं आया। वहां मेरी गरिमा पर चोट किया गया था। शायद मेरे जीवन का सबसे बडा हादसा था वह जब मैं अपना कॉन्फिडेंस खो बैठी थी। मुझे उससे उबरने में मेरे पति ने बहुत मदद की। सच कहूं तो यह स्टेज आ गई थी कि मैं मीडिया को फेस भी नहीं करना चाहती थी। लेकिन हमारे प्रफेशन में मीडिया से मुक्ति मिलना आसान नहीं। उस दौर में मैंने पब्लिक गैदरिंग्स में आना-जाना छोड दिया। जहां भी जाती, हर तरफ सिर्फ यही बातें होतीं। कई बार लगता कि लोग मुंह पर ही बोलना न शुरू कर दें। इस घटना में मेरा कॉन्फिडेंस बुरी तरह आहत हुआ और मुझमें दुनिया को फेस करने का साहस नहीं रहा। कई बार लगा की मेरी शख्सीयत यहीं खत्म हो गई। लेकिन मेरे पति राज ने मेरा पूरा साथ दिया। उन्होंने मुझे आगे बढने का आत्मविश्वास दिया। वह अकसर कहते रहते थे कि अगर मेरी शख्सीयत इन बातों से प्रभावित होने लगी तो मैं आगे बढ ही नहीं सकती। यह वाक्य मेरे लिए जादुई साबित हुआ। आज बडी से बडी आलोचना हो जाए, मैं सब कुछ झेल सकती हूं। मुझे खुद पर पूरा भरोसा है।
यादों ने बदल दिया स्वभाव: जूही चावला
सभी जानते हैं कि मैं खुशमिजाज नेचर की हूं। मैं हैप्पी गो लकी सोच पर विश्वास करती हूं लेकिन मेरे जीवन में ऐसी चंद घटनाएं हुई हैं जिन्होंने मुझे अपना टेंपरामेंट बदलने पर मजबूर कर दिया। मेरी मां मोना चावला मेरे लिए फ्रेंड-फिलॉसॉफर और गाइड थीं। उन्हीं की प्रेरणा से मैंने जीवन में सफलता हासिल की। वह मेरे जीवन का पारस थीं, जिनके छूने मात्र से मैं सोना होती चली गई। उनका मेरे जीवन से जाना मेरी जिंदगी का सबसे बुरा अनुभव था। धर्मा प्रोडक्शंस के बैनर तले बनी फिल्म डुप्लीकेट की शूटिंग के लिए मैं शाहरुख, सोनाली बेंद्रे, फरीदा जलाल तथा करण जौहर सभी विदेश गए थे। मेरे साथ मेरी मॉम भी थीं। वह अनुशासन की बडी पक्की थीं। आदत के अनुसार सुबह-सुबह उठकर वॉक के लिए जाने की तैयारी की। मैं तब नींद में थी। मॉम ने मुझे कहा भी कि मैं उनके साथ चलूं पर नींद अनकंट्रोलेबल हो रही थी। इसलिए मैं उनके साथ नहीं गई। मैंने ख्वाब में भी नहीं सोचा था कि रात में हुई उनसे गपशप आखिरी मुलाकात बन जाएगी। वह वॉक के लिए तैयार हुई और उसके आधे घंटे में ही वह हादसा हो गया। दरअसल मॉम चल रही थीं और किसी कार ने उन्हें पीछे से मार दिया। ड्राइवर भी भाग गया। हम लोग सोचते हैं कि भारत में एक्सीडेंट का ज्यादा खतरा होता है, लेकिन इस अनहोनी ने मेरी सोच बदल दी। मेरी जिंदगी का नक्शा बदल गया। परदेस में मैं अकेली हो गई थी हमेशा के लिए। उस हादसे से उबरना मेरे लिए आसान नहीं था। मैंने जिंदगी का उससे बुरा पहलू कभी सपने में भी नहीं सोचा था। कैसे निकली हूं उस दौर से ये मैं ही जानती हूं। जिंदगी कभी रुकती नहीं, चाहे आपकी यादें आपके साथ रहें या समय के साथ धुंधली हो जाएं। जिंदगी बढती गई, करियर में कई मुकाम आए और निजी जीवन में भी। जय से मुलाकात हुई और फिर शादी। पारिवारिक जीवन में जुडने के बाद जीवन का नजरिया बदला और मायने भी। कुछ साल पहले अपने परिवार के साथ फुकेत गई थी। उस वक्त सुनामी आया था। जहां हम रुके थे, उस होटल तक में सुनामी की लहरों ने तबाही मचाई। सब जिंदा बच गए, लेकिन बेहद दर्दनाक था वह हादसा। मेरी आंखों के सामने मेरे पति और बच्चों को कुछ हो जाता तो क्या होता! इस बात की तो मैं कल्पना भी नहीं करना चाहती। हालांकि उस घटना को कई बरस गुजर चुके हैं लेकिन वह ट्रॉमा आज भी मेरे दिल से गया नहीं। आज भी अगर किसी तूफान की खबर सुनती हूं तो डर लगने लगता है। ऐसे अनुभवों ने मेरे जीवन का अच्छा समय छीन लिया। आज भी मॉम का हादसा याद आ जाए तो संभलना मुश्किल हो जाता है। कुछ यादें कभी भुलाई नहीं जा सकतीं। बस इंसान मजबूरी में जिंदगी के साथ चलता रहता है।
अतीत भुलाना मेरे लिए है बेहद मुश्किल: प्राची देसाई
मेरे जैसे सेंसिटिव लोगों के लिए कुछ भी भुला पाना या किसी भी स्थिति से उबर पाना आसान नहीं होता। दुख हो या सुख, मैं हर बात लंबे समय तक दिल में बसाए रखती हूं। बहुत ज्यादा तकलीफ होती है इस आदत से। दिल में कोई भी बात लंबे समय तक घर कर जाए तो जीवन में आगे बढना मुश्किल होता है। इंसान उसी बात के बारे में हमेशा सोचता रहता है। ऐसा ही कुछ हुआ था जब मैं पुणे में 12वीं क्लास में पढती थी। मेरी एक बर्मीज दोस्त थी मम्पी। डेढ साल हम क्लास में और होस्टल में साथ रहे। पल-पल का साथ था हमारा। खाने-पीने से लेकर घूमना और बदमाशियां करना, सब कुछ मम्पी के साथ ही करती थी मैं। मम्पी मेरा बहुत ध्यान भी रखती थी। होस्टल में वह मेरी दूसरी केयरटेकर थी। अचानक एक दिन मुझे पता चला कि मम्पी के घर में कुछ प्रॉब्लम है जिसके कारण उसे मिड सेशन क्लास छोड कर जाना पडा। कुछ ऐसा हुआ कि मम्पी जाने के वक्त मुझसे मिल भी नहीं सकी। मेरे लिए फाइनल एग्जाम देना भी बहुत मुश्किल हो गया था। किस्मत ने मेरा साथ दिया तो मैं पास हो गई थी, वरना मुझे बिलकुल उम्मीद नहीं थी कि मैं आगे बढ सकूंगी। मुझे सब समझाते थे, लेकिन मुझे बहुत समय लगा यह बात कुबूल करने में कि मम्पी अब मेरे साथ नहीं है। मुझे बहुत ज्यादा बुरा लगता था वह दौर। जैसे-तैसे एग्जाम खत्म हुए और मैं घर वापस आ गई। उसके बाद मैंने काम करना शुरू कर दिया। व्यस्तता बढ गई तो ध्यान भी बंट गया। लेकिन मम्पी की याद आज भी मेरे दिल में है। ऐसे ही कुछ खुशियों के पल भी होते हैं जिनसे उबर पाना मेरे लिए आसान नहीं होता। रॉक ऑन का हैंगओवर मुझे काफी दिनों तक रहा। फिल्म रिलीज होकर सफल हो गई, लेकिन मैं उसी दौर में लंबे समय तक जीती रही। फिल्म की शूटिंग खत्म हुए लंबा समय गुजर गया, लेकिन मैं सेट पर होती मौज-मस्ती को रोजाना मिस करती थी। पास्ट को भुला देना आसान नहीं होता मेरे लिए।
शर्मसार कर देती हैं वो यादें: समीरा रेड्डी
मेरा काम ऐसा है कि मुझे बहुत ट्रैवेल करना पडता है इसलिए अनुभव भी कुछ ज्यादा ही होते हैं। कुछ ऐसी यादें हैं जिन्हें सोचकर दिल खुश हो जाता है और कुछ ऐसी यादें भी हैं जिनके जहन में आते ही शर्मसार हो उठती हूं। मैं और मेरा परिवार ऐसी की कुछ यादों से आज भी घबरा उठता है। दरअसल कुछ साल पहले तक मुझे नींद में चलने की बीमारी थी। एक बार की बात है कि मैं शूटिंग करने के लिए गोवा गई थी। मेरे साथ वाले कमरे में याना गुप्ता ठहरी हुई थी। शूटिंग पैक अप करने के बाद सभी यूनिट मेंबर्स ने खाना खाया और अपने-अपने रूम्स में पहुंच गए। मैं भी थक कर अपने रूम में सो गई, लेकिन आधी रात को करीब दो-ढाई बजे जब मेरी आंख खुली तो मैंने खुद को किसी दूसरे के कमरे में पाया। और सारा होटल स्टाफ मुझे घेरे खडा था। अपनी नींद में चलने की आदत के कारण मैं दूसरे के कमरे का दरवाजा खोलने की कोशिश कर रही थी। मेरे रूम से दूसरे रूम में एक दरवाजा खुलता था। पहले तो मैंने उसका लॉक खोलने की कोशिश की। जब नहीं खुला तो नींद में ही जोर आजमाइश भी कर डाली। दरवाजा तो खुल गया, लेकिन साथ ही मेरी नींद भी। देखा कि सारा स्टाफ मुझे अजीब निगाहों से देख रहा था। मेरे लिए बेहद शर्मनाक था वह वाक्या। काफी दिनों तक मैं यूनिट वालों से भी नजर नहीं मिला सकी। कुछ यूनिट वालों ने इस बात का मजाक इस ढंग से उडाया कि मेरे लिए बहुत एंबैरेसिंग हो गया था। मेरी इसी आदत की वजह से कुछ साल पहले मेरे साथ एक बडा हादसा होते-होते बचा। आधी रात को नींद से उठकर चलते-चलते खिडकी के पास पहुंची। मैं खिडकी से कूदने वाली थी, लेकिन किस्मत अच्छी थी कि मेरे पेरेंट्स समय पर आ गए और मुझे वापस ले जाकर अपने रूम में सुला लिया। इसके बाद उन्होंने हमारे सारे रूम्स के बैलकनी और खिडकियों में बैरिकेड्स लगा दिए, ताकि मैं दोबारा नींद में चलते हुए किसी दुर्घटना की शिकार न हो जाऊं। हमारा घर नौवीं मंजिल पर है। सोच कर भी दिल दहल जाता है कि अगर उस दिन मेरे पेरेंट्स न आए होते तो मेरा क्या होता! अपने इस डर से बचपन से जूझती आई हूं। किसी हादसे के बाद दिल में डर और बढ जाता है, लेकिन मैं कुछ कर नहीं सकती। रात की बात को रात में भुलाकर दिन में नई तरह से शुरुआत करने की कोशिश करती हूं। अब इस समस्या से निजात मिल चुकी है, लेकिन पुराने वाकये सोच कर आज भी रूह कांप जाती है। मेरी बहन सुषमा ने मुझे मेडिटेशन सिखाया जिससे इस बीमारी से उबरने में मुझे मदद मिली। शुक्र है कि मैं अब इससे बाहर हूं।
उन यादों में जीना मेरी जरूरत है: राहुल देव
मैं मानता हूं कि समय के साथ पास्ट को भुलाकर लोग आगे बढ सकते हैं लेकिन जीवन में सब कुछ भुलाया नहीं जा सकता। कुछ लमहे ऐसे होते हैं जिनके साथ हम हमेशा जीना चाहते हैं। मेरी पत्नी रीना अब इस दुनिया में नहीं है, लेकिन उसके साथ बिताए लमहों को मैं कभी नहीं भुला सकता। वह भले ही आज मेरे जीवन में फिजिकली मौजूद नहीं हैं, लेकिन वह हर पल मेरे साथ रहती हैं। रीना कैंसर से बीमार थीं और पिछले साल मुझे और सिद्धार्थ को छोड कर चली गई। रीना मेरे जीवन के हर एक पल में आज भी उसी तरह बसी हैं जैसे पहले थीं। बहुत बार लोगों ने कहा कि मुझे आगे बढना चाहिए, लेकिन मुझे इसकी जरूरत महसूस नहीं हुई। हमारी शादी को ग्यारह साल हुए हैं और सिद्धार्थ हमारी जिंदगी का एक अहम हिस्सा है। रीना सिर्फ मेरी पत्नी ही नहीं, मेरे जीवन का आधार थीं। सिद्धार्थ के लिए अब मैं मां और बाप दोनों का रोल अदा कर रहा हूं। पूरी कोशिश करता हूं कि सिद्धार्थ को वह सब कुछ दे सकूं जो उसे अपने मां-बाप से मिलना चाहिए। लेकिन मैं रीना की जगह नहीं भर सकता। मैं उसकी यादों से निकल सकता हूं या नहीं, यह बात दीगर है। मैं उसकी यादों से निकलना ही नहीं चाहता। कहते हैं जीवन आगे बढने का नाम है लेकिन मेरी जिंदगी उन्हीं पलों में ठहर-सी गई है। मेरे लिए मेरा पास्ट कोई बोझ नहीं जिसे मैं भुला दूं। न ही उसकी वजह से मेरी जिंदगी में कोई परेशानी आ रही है। वह आज भी मेरी जिंदगी की सबसे बडी ताकत है। सिद्धार्थ और रीना मेरी दुनिया हैं। यादों को भुला देना शायद जरूरी होता होगा, लेकिन मुझे यह उतना जरूरी नहीं लगता। रीना की कमी तो मेरे जीवन में हमेशा ही रहेगी लेकिन मेरी जिंदगी उसकी यादों के सहारे भी कट रही है। हां, इस विषय पर बात करना मुझे दुखी करता है, लेकिन उन यादों में जीना मेरी जरूरत है। मेरी जिंदगी के हर पल में उसकी यादें रमी हैं और उनसे छुटकारा पाने की कोशिश करूंगा तो शायद जी नहीं सकूंगा।
इंटरव्यू दिल्ली से दीक्षा पी गुप्ता और मुंबई से पूजा सामंत
                दीक्षा पी. गुप्ता
( दैनिक जागरण )