Atreya


Monday, January 2, 2012



आने वाले कल की ¨हिंदी 
¨हिंदी  को राजभाषा बने जाने कितने दशक बीत गए हैं मगर नौ दिन चले अढाई कोस जैसी भी स्थिति नहीं दिखाई देती। फिल्मों और संचार माध्यमों पर छाई रहने के बावजूद रोजगार के बाजार में उसकी पूछ नहीं के बराबर है। हर ओर अंग्रेजी का दबदबा कायम है उस पर भूमंडलीकरण और कम्प्यूटर संजाल ने और मुश्किलें पैदा की हैं। ऐसे में सवाल उठता है, कैसा होगा आने वाले दशकों में हिन्दी का स्वरूप? इसका जवाब दे रहे हैं साहित्य जगत के कुछ धुरंधर-


नहीं रुकेगा हिंदी का विकास: गौरव सोलंकी [युवा लेखक]
इंटरनेट और मोबाइल के आने से शुरुआती दौर में ऐसा जरूर लगा था कि हिंदी के लिए खतरा है जब कंप्यूटर या मोबाइल पर हिंदी लिखना काफी मुश्किल था और बहुत कम लोग इंटरनेट पर हिंदी लिखते थे। इससे रोमन में हिंदी लिखने को भी बढावा मिला। लेकिन जब यूनिकोड आया और हिंदी में टाइप करना काफी आसान हो गया तो धीरे-धीरे इंटरनेट पर हिंदी बढने लगी। अब हिंदी के दो रूप इंटरनेट पर मिलते हैं। कुछ लोग उसे रोमन में लिखते हैं, लेकिन हिंदी के साहित्य से जुडे लोग देवनागरी में ही।

मुझे संकट उतना नहीं लगता। खासकर जब आप हिंदी की वेबसाइटों और ब्लॉगों की बढती संख्या देखें। यह खतरा तब महसूस किया जा रहा था जब भारत में आईटी वाले लोग ही इंटरनेट के यूजर थे। वे भला हिंदी का कितना इस्तेमाल कर सकते थे और उन्हें देखकर कोई अनुमान लगाना गलत भी है। जैसे-जैसे किसी देश के आम आदमी तक तकनीक पहुंचती है, वह उसके हिसाब से ढलती जाती है। हिंदी बोलने-पढने वाले कस्बों-गांवों में तो अब भी नेट का पहुंचना बाकी है और इसके बाद देखिए कि हिंदी कितना ज्यादा दिखाई देती है। यह ऐसा ही होगा जैसे केबल गांवों में पहुंचा तो टीवी के धारावाहिक भी उनकी कहानियां कहने लगे।

मैं अपने पिछले छ:-सात सालों के अनुभव से बता सकता हूं कि हिंदी इंटरनेट पर कई गुना बढी है और 2020 तक यह और कई गुना बढ जाएगी। मोबाइल पर तो वह रोमन में भी लिखी जा रही है लेकिन कंप्यूटर पर दोनों तरह से। जहां तक साहित्य पर संकट का सवाल है, उसका तकनीक की बजाय यह कारण कहीं ज्यादा बडा है कि पूरे विश्व में ही किताबों का पढना कम होता जा रहा है और वैसे भी भारत जैसे विकासशील देश में हमेशा उस भाषा की तरफ ही लोग भागेंगे जो रोजगार दिलाएगी।


संकट में है हिंदी का अस्तित्व- मृदुला गर्ग [वरिष्ठ लेखिका]
भाषा केवल आपसी संवाद का माध्यम नहीं बल्कि किसी देश-समाज के इतिहास, सभ्यता और संस्कृति का प्रतीक होती है। हिंदी भाषा के अस्तित्व के लिए जो संकट उत्पन्न हुआ है, उसकी प्रमुख वजह यह है कि न ही हमारी युवा पीढी को भाषा का संस्कार दिया गया और न ही बच्चों को यह संस्कार दिया जा रहा है। अत: इसके लिए युवा पीढी या इंटरनेट-मोबाइल को दोष देना उचित नहीं है। मैं पिछले 50 वर्षो से देख रही हूं कि हिंदी में अंग्रेजी को बडी शान से मिलाया जा रहा है। दरअसल शुरुआत से ही यह धारणा हमारे समाज में बैठ गई है कि अंग्रेजी बोलने लिखने और पढने से औकात बढ जाती है।

हिंदी तो मामूली लोगों की भाषा है। इसमें कोई विशिष्टता नहीं है। यही वजह है कि अंग्रेजी को पैबंद की तरह हिंदी में लगाकर बोलने और लिखने का चलन बढने लगा। यह सही है कि दूसरी भाषा के शब्द आने से मूल भाषा का संवर्धन होता है लेकिन उसे लय के साथ आना चाहिए। मूल भाषा में घुल-मिल जाना चाहिए। आज जब हम हिंदी को देखते हैं तो साफ हो जाता है कि इसमें अंग्रेजी का संक्रमण, उसके विकास या संवर्धन के लिए नहीं बल्कि अपने स्टेटस को बनाए रखने और हमारी आलसी प्रवृत्ति की वजह से हो रहा है।

जहां तक साहित्यिक भाषा का प्रश्न है तो शहरी रचनाकार ऐसी पैबंद लगी भाषा का अधिक प्रयोग कर रहे हैं। ऐसे में हिंदी को अंधकारमय भविष्य से उबारने के लिए केवल हिंदी दिवस मना लेना पर्याप्त नहीं होगा। बल्कि इसके प्रति सम्मान का भाव मन में पैदा करना होगा। हमें यह भी याद रखना होगा कि भाषा के खोने से संवेदन शून्यता बढेगी। और संवेदनशील होना मनुष्य होने की पहली शर्त होती है।


कोई खतरा नहीं है हिंदी के लिए: रवीन्द्र कालिया [वरिष्ठ कथाकार और संपादक]
इंटरनेट-मोबाइल के बढते चलन से हिंदी भाषा का जो रूप बदल रहा है, जिसे युवा पीढी तेजी से अपना रही है, उसे मैं भाषा के विकास की सहज प्रक्रिया मानता हूं। मेरा स्पष्ट मानना है कि बहुत शुद्धतावादी होने से भाषा का विकास सीमित रह जाता है। जब अंग्रेजी के अखबारों में हिंदी के शब्द मिल सकते हैं तो हिंदी के शब्दों में अंग्रेजी का संक्रमण गलत कैसे हो गया। अंग्रेजी शब्दों के आगमन से या सहज-सरल अभिव्यक्ति के लिए थोडा रूप परिवर्तन की वजह से हिंदी के अस्तित्व को लेकर चिंतित होने की जरूरत नहीं है।

हिंदी के समाचार पत्रों और पुस्तकों की रीडरशिप लगातार बढ रही है। इससे सिद्ध होता है कि हिंदी पढने और समझने वाले लोगों की संख्या लगातार बढती जा रही है। ऐसे में अंग्रेजी के जुडने से हिंदी अवमूल्यित हो रही है, ऐसा सोचना गलत है। भाषा के शुद्धीकरण की चिंता व्याकरणविदों को करनी चाहिए, आम लोगों या पाठकों को इसकी चिंता नहीं करनी चाहिए।

किसी भी भाषा में दूसरी भाषा के शब्द आने से उसका विकास होता है। अब चेन्नई में मद्रासी हिंदी, महाराष्ट्र में मराठी हिंदी बोली जाए तो हम चिंतित हो जाएं कि हिंदी बिगड रही है तो ऐसा सोचना पूरी तरह गलत है। बल्कि हमें संतोष करना चाहिए कि हिंदी की स्वीकृति लगातार बढ रही है। समय और आवश्यकतानुसार भाषा में परिवर्तन न होने पर उसका विकास सीमित रह जाता है। आने वाले वर्षो में हिंदी के विकास को लेकर मैं पूरी तरह आश्वस्त हूं कि इसका अंतरराष्ट्रीयकरण भी होगा। हिंदी के विकास के लिए यह बहुत शुभ लक्षण है कि इसे अंतरर्राष्ट्रीय स्तर पर स्वीकृति मिल रही है।


उ”वल है हिंदी का भविष्य: महेश भारद्वाज [युवा प्रकाशक]
यह सही है कि इंटरनेट और मोबाइल के आने से हिंदी का स्वरूप बदला है। विशेष रूप से युवा पीढी ने हिंदी भाषा में अपनी सुविधानुसार फेरबदल किया है, लेकिन इसे मैं सहज, स्वाभाविक और भाषा के विकास के लिहाज से सकारात्मक रूप में देखता हूं। आज की पीढी [चाहे वो साहित्य से जुडी हो या आम जीवन से] के लिए प्रभावी और सहज अभिव्यक्ति ज्यादा महत्वपूर्ण है, बनिस्पत पांडित्यपूर्ण और अलंकारिक भाषा के। इसीलिए यह पीढी लेखन और जीवन में ऐसी भाषा के प्रयोग से परहेज नहीं करती है।

अगर पिछली पीढी के साहित्यकार ऐसा सोचते हैं कि अंग्रेजी शब्दों के आने से या सहज अभिव्यक्ति के लिए स्वरूप में थोडा परिवर्तन होने से हिंदी भाषा पर संकट आ जाएगा, तो इसे मैं पीढियों की विचारधारा में अंतर मानता हूं। मैं उन लोगों से यह पूछना चाहूंगा कि पहले जब हिंदी भाषा में उर्दू, फारसी, और दूसरी भाषाओं के शब्द आते थे, तब ये सवाल क्यों नहीं उठाया गया?

मैं स्पष्ट रूप से मानता हूं कि हिंदी भाषा के अस्तित्व पर किसी प्रकार का कोई संकट नहीं है। देश में ही नहीं विदेशों में भी हिंदी के प्रति लोगों में प्रेम बढ रहा है। इसके अस्तित्व को लोग स्वीकार कर रहे हैं। इस दिशा में होने वाले किसी भी परिवर्तन को मैं शुभ लक्षण मानता हूं क्योंकि भाषा वही अच्छी होती है, जो सरलता से और प्रभावी ढंग से अपने लक्ष्य तक कम्युनिकेट हो सके। इस लिहाज से मैं हिंदी के भविष्य को बहुत उ”वल मानता हूं।
[प्रस्तुति-विभु श्रीवास्तव] ( दैनिक जागरण )

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